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नील की खेती: Indigo Farming in India, Champaran Satyagraha, and the Murder of the English Manager

इतिहास में हमारा चम्पारण नील की खेती से जुड़ा रहा है, चंपारण भारत के आजादी की लड़ाई में "नील की खेती" का सबसे प्रमुख स्थान था, महात्मा गांधी भी इस नील आंदोलन के कारण ही आजादी की लड़ाई को एक नई दिशा प्रदान की है, इस नील की खेती का प्रमुख केंद्र बंगाल के बाद चम्पारण रहा. 

1813 चकिया स्टेशन से 1 किलोमीटर दक्षिण  बारा जगह पर नील का पहला कारखाना स्थापित किया 1850 में चीनी केे बदले  नील की खेती का विकास होने लगा 1892-97 के सर्वे के अनुसार चंपारण में नील के कुल 21 कारखाने  एवं 48 कोठी तथा 33000 कर्मी 95970 एकड़ जमीन जो कुल खेती के जमीन के 7% हिस्सा पर नील की खेती की जाने लगी, किसानो  के ऊपर अंग्रेजों के अत्याचार बढने लगे, 1906 में चांद बरवा साठी के शेख गुलाब एवं शीतल राय, पीर मोहम्मद मुनिस से  मिले.

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शेख गुलाब, शीतल राय, हाफिज दीन मोहम्मद, पीर मोहम्मद मुनिस, राधे मल मोटानि का घर आंदोलन की खुफिया मीटिंग का केंद्र बना रहा अंग्रेज मैनेजर ब्लूम्स फील्ड  को रैयतों  द्वारा 13 फरवरी 1907 को हरदिया पुल के करीब दिनदहाड़े पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, नील की खेती के संबंध में मजदूरों द्वारा यह दूसरी  हत्या थी, इसके बाद अंग्रेजों के जोर जुल्म और ज्यादा बढ़ने लगे 1960 में परसा  फैक्ट्री के मैनेजर और चपरासी पर हमला हुआ इसके बाद परसा, मलाही और कुड़िया कोठी में हिंसा ने जोर पकड़ लिया, 1 मई 1918 को तीन कठिया कानून का पूरी तरह से खात्मा हो गया.

चम्पारण में हरदिया मन इस नील की खेती से इतिहास में अब तक अछूता रहा है जबकि नील की खेती का एक बड़ा सा प्लांट का अवशेष हरदिया मन में आज भी धरोहर के रूप में उपस्थित है लेकिन इतिहास में हरदिया मन का कोई विशेष प्रमाण नहीं मिल सका है, उस जमाने में 1820 नील की खेती का जिक्र बंगाल से शुरू होता है यहां तीन कठिया कानून अंग्रेजों ने लागू किया था अर्थात एक बीघा की में 3 कट्ठा जमीन पर नील की खेती अनिवार्य थी भारत के जमींदारों ने पांच कठिया खेती का विरोध शुरू किया तो फिर अंग्रेजों ने 1859 में तीन कठिया कानून भारतीयों पर थोपा वास्तव में बंगाल के नदिया जिला के रहने वाले गोविंदपुर गांव के दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास ने 1859 में विरोध शुरू किया 1860 नवाब अब्दुललतीफ़ के पहल पर में ब्रिटिश गवर्नमेंट ने नील आयोग की स्थापना कर किसानो के दबाव को कम करने की कोशिश की.

बंगाल में विरोध जारी था ब्रिटिश ने 1863 में बंगाल के अतिरिक्त जे पी एडवर्ड ने जगह  की तलाश शुरू कर दी और इन्हें बिहार पसंद आ गया 1867 में लाल सरैया में नील की खेती जारी थी एवं अंग्रेज़ो के विरुद्ध बगावत भी परवान चढ़ता रहा. 

1890 बेतिया राज द्वारा हरदिया कोठी कोअंग्रेजों ने नील की खेती का केंद्र बनाया और यहां  इंडिगो प्लांट बनाकर नील की पैदावार शुरू कर दी बताते चलें कि 1905 में दोबारा बगावत ने सर उठाया नील की खेती के विरुद्ध 1907 में शेख गुलाब और शीतल राय ने पश्चिम चंपारण में विद्रोह की अगुवाई शुरू की साथ ही मोतिहारी में बाबू लोम  राज सिंह ने बगावत की कमान संभाली.

1908 का जमाना था आंदोलन पूर्णत: अहिंसक रहा और लोग जुड़ते गए नील  के कार्य करने वाले लोगों ने आंदोलन का साथ देते हुए काम करने से कतराते रहे हरदिया कोठी में 1910 में शिकागो से नील प्लांट में काम आने वाले लोहे के ट्रैक्टर आदि कई मशीनें मंगाई गई आज अवशेष के रूप में हरदिया कोठी में यह  ट्रेक्टर अभी भी मौजूद है बेतिया के हरदिया मन में  एक कोठी एवं  नील बनाने के प्लांट के अवशेष अभी पूरी तरह मौजूद है आठ खंडों में यह अवशेष मौजूद है एक बड़ा सा चिमिनी कई बड़े-बड़े कमरे वहां आज भी देखे जा सकते हैं. 

नील आंदोलन ने गांधी जी को चंपारण से पहचान कराई 1914 में राजकुमार शुक्ला गांधी जी  के संपर्क में आए जबकि इसके पूर्व में ही पीर मोहम्मद मुनीस  के लेखकों द्वारा उस समय  गांधी जी को चंपारण का पता बता दिया था 1917 में गांधीजी 10 अप्रैल 1917 को  पटना, फिर पूर्वी चंपारण के मोतिहारी, तब बेतिया भी आए 17 अप्रैल 1917 से नील आंदोलन पूरी तरह उभर कर सामने आया.

नीले से जुड़े बेतिया से करीब 8 किलोमीटर उत्तर की ओर हरदिया कोठी मौजूद है हरदिया कोठी एक बहुत बड़ा फार्म है जहां पर नील का प्लांट है अंग्रेजों की कोठी से करीब 200 मीटर की दूरी पर यह नील का प्लांट है ठीक प्लांट के सटे अंग्रेजों की कचहरी के बाहरी हिस्से में शिकागो से मंगाया गया वह लोहे का ट्रैक्टर आज भी उपस्थित है 

Neel ki kheti

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इतिहास में हरदिया मन जो नील प्लांट के करीब 100 फीट पूरब में स्थित है यह मन इंडिगो प्लांट जो हरदिया मन के नाम से अथवा हरदिया कोठी के नाम से जाना जाता है इतिहास में विलुप्त होता नजर आता है वास्तविकता यह है यह हरदिया मन नील की खेती के कारण काफी प्रसिद्ध है जो हमारा एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक धरोहर है। 

हमने इतिहासिक प्रमाणों को पत्रकारिता के स्कॉलर अफ़रोज़ आलम साहिल की पुस्तक शेख गुलाब एवं पीर मुहम्मद मुनिस से भी काफी सहयोग लिया है।

अधिक जानकारी के लिए आप इस वीडियो को ज़रूर देखें


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